अभी कल यूँ ही उसके पलंग के करीब जा पसर गई,
देख कर मेज़ पर रखी उसकी तस्वीर, एकाएक बिखर गई |
झुंझलाहट में मन किया कि नोंच लूं बाल, दे दूं अपनी जान,
पर जब गिरी आँगन में बूँदें नभ से, उसकी यादों ने फिर बंटा दिया ध्यान |
हाँ,…अभी दो सावन पहले की बारिश में सीने से लगाए एक कागज़ था लाया,
प्रफुल्लित मन और धड़कते उस दिल का सबब मुझे तो न समझ आया |
उतावलेपन से फिर बोला, “ले माँ, कर दिया है ऊंचा आज तेरा सर,
चुन लिया गया हूँ आज लड़ने को देश की सरहद पर |”
देख ख़ुशी मेरी मानो घटा बरसी दुगुने ज़ोर से,
गौरवान्वित करती हवाएं जैसे चली हों चारों ओर से |
शहीद अपने पिता के नाम को जैसे उसने चार चांद लगाए हों,
आशीर्वाद देने को वो जैसे इन बूंदों के रूप में आए हों |
शिकन न थी माथे पर मेरे, कि जिएगा वो हथेली पर रख कर जान,
हर्षित थी कि कहलाया जाएगा अब से , महान इस देश की शान |
पर पिछले साल इसी समय झमाझम गिरीं बूँदें, गगन से न सही नैनों से मगर,
मिली जब चिट्ठी से मुझे, उसके सर्वोच्च बलिदान की ख़बर |
इतनी नाज़ुक भी न हूँ कि टूट कर बिखर जाती यह सुन,
पर अगली ही ख़बर पढ़ते ही मानो खौल गया मेरा खून |
लिखा था ख़त में ,“शहीद हुआ वो तोड़ कर दुश्मन की अकड़,
पर ले गए वो काट कर सर उसका सर, रह गया केवल धड़ |”
बाहर तो क्या ही कड़कती होगी, जो गिरी बिजली मुझ पर यह सुन कर,
रखा ही था अभी मेज़ पर अधूरा सा इक स्वेटर उसका बुन कर |
भीगा उसका सरकटा शव जब आया सामने गाँव के,
बाढ़ सी आई आंसुओं की, ज़मीन न रही तले पांव के |
कहाँ सुहाए यह बारिश फिर अब, ओले भी जैसे आग बरसाएं,
क्या इसी दिन का इंतज़ार करे वो माँ, कि बेटे का शव एक फुट कट कर आए ?
बरसात यह क्या भिगोए वो रूह, जो ताउम्र के लिए बनी प्यासी है,
दिल जिस माँ का पत्थर सा हो बना दुःख की कुटिया का वासी है |
ठीक एक साल गुज़रा है आज, आज फिर जमकर बरसी है,
आँखों से भी आ बरसी है, आज जो उसकी बरसी है ||
© मोहक चौधरी ‘सचिंत’- २८.०६.२०१७